व्यंग्य/ विनय चतुर्वेदी
वे अज्ञानी थे। नमस्ते और नमस्कार कह कर स्पर्श से बचते थे। साथ में लोटा और पानी रखते थे। किसके यहां कच्चा खाना है और किसके यहां पक्का, यह सब तय था। अपनी थाली और अपना बर्तन अलग था उनका।
कहीं बाहर गए तो केले या पुरइन के पत्ते पर भोजन करते थे। रसोई घर में मछराह और अमनिया बर्तन तो अलग अलग होते ही थे, अतिथियों के लिए भी बर्तन अलग से रखे जाते थे। दरवाजे से लेकर आंगन तक की इंट्री के लिए पैमाना तय था। क्योंकि उन्हें पता था कि बीमारियां कैसे फैलती हैं और कैसे उनसे बचा जा सकता है।
लेकिन हम पढ़े लिखे लोगों ने इस संस्कृति को छुआछूत का नाम दे दिया। इन मर्यादाओं में रहने वालों को दकियानूस, पोंगा पंथी, कट्टरपंथी और मनुवादी.. ना जाने क्या-क्या नाम दे दिया हमने। उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता जीवन पद्धति और उपचार विधि का उपहास उड़ाया। समस्त वर्जनाएं तोड़ डालीं।
… आज फिर से हम सब उसी राह पर आगे बढ़ चले हैं। तो आइए फिर से.. स्वागत है.. नमस्ते है!