संस्मरण/ अमन
ईरावई रुपयालु… जानता हूं, ये शब्द आम समझ के बाहर हैं। दरअसल हमारी जो मातृभाषा होती है न, आमतौर पर हम बस उसी भाषा का ज्ञान रखना चाहते हैं। दूसरी भाषाओं, जिनकी अपेक्षाकृत हमें कम जानकारी होती है या फिर जिन्हें हम नहीं जानते, उन्हें सुनकर हमें जल्दी ही झेंप या झल्लाहट सी होने लग जाती है।
शब्दों की दिमागी कार्यवाही तो होती रहेगी, इससे पहले यह बता दूं कि मैं बिहार से हूं और मेरी मातृभाषा अंगिका है। मातृभाषा सर्वोपरि होती है। अपने घर पर सबसे हमारी बातचीत अंगिका में ही होती है और मेरे हिसाब से यह बहुत ही अच्छी बात है।
परंतु कुछ तो फिल्मों को देखकर और कुछ अनेक गीतों-गानों को सुनकर, थोड़ी बहुत अन्य भाषाओं की भी समझ हुई। यहां अन्य भाषाओं में बिहार में बोली जाने वाली दूसरी भाषाओं से मेरा अभिप्राय नहीं, क्योंकि हम तो ठहरे ठेठ बिहारी तो बिहार की किसी भी भाषा की समझ तो दिल में आ ही जाती है।
खैर चलिए, भाषाओं के बीच अपने विचार को उलझा कर रखना मेरा मकसद नहीं। आइए, भाषाओं की प्रासंगिकता को लेकर हम आपको एक जीवंत प्रसंग से रूबरू कराते हैं। उम्र के समय के साथ हमारा बचपन मानो खेल खेल में ही गुजर गया। वह शहर जहां हमारा बचपन बीता, सुबह की खूबसूरत शुरुआत नदी तट पर स्थित पवित्र एवं मनोरम भयहरण स्थान में होती, तो शाम का वक्त मां तारा मंदिर प्रांगण में लाल होते आसमान देखकर बीतता।
रात के लिए तो हमारा खूबसूरत परिवार और एक छत ही काफी था। छत की बागवानी में खिले हुए फूल की मंत्रमुग्ध कर देने वाली खुशबू आज भी हमारे जेहन में है। पर वह समय अब पीछे छूट चुका है। समय का पहिया घूमता हुआ आगे चला और मैं भी आगे की पढ़ाई के लिए घर से बहुत दूर चला गया।
बात उस समय की है, जब मैं अपने घर से बहुत दूर स्थित शहर में अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दूसरे वर्ष के पहले चरण में था, तब मेरे भैया वहां आए थे। उनके आने का कारण तो मेरी ही कुछ बेहद अपरिहार्य जरूरत पूरा करना था, पर मुझे मालूम है कि उनका असली मकसद मुझे देखने, मुझसे मिलने और मेरे साथ कुछ समय बिताने का था।
एक शाम भैया के साथ मैं बाहर निकला था। हम दोनों भाई रिक्शे पर सवार हुए। चलते हुए रिक्शेवाले ने जब भी कुछ बोला, भैया को लगा कि हम पहुंच गए और वह उतरने को बेताब होने लगते! ऐसा होने की सिर्फ एक ही वजह थी। भारत के दक्षिण की ओर बढ़ने पर भाषाओं की समझ बौनी पड़ने लगती है। खैर हम लोगों ने हंसी मजाक करते हुए यह वाकया गुजर जाने दिया।
परंतु यह तो शुरुआत थी। भैया मेरे साथ एक-दो दिन और रुके और वहां ऐसे वाकये होते रहे। एक बार भैया किसी दुकान पर गए। वहां उनसे जब सामान की कीमत बोली गई तो उनको मैं याद आ गया। ‘बाबू देखो ना, क्या बोल रहा है दुकानदार। मेरी तो समझ के बाहर है।’
हा हा हा हा.. करते हुए मैं भैया के पास गया और दुकानदार से बातें की। पर भैया के सब्र का बांध अब टूटने लगा था। ‘बाबू, अब मुझे जाना है। यह जगह और यहां की मेरी समझ में ना आने वाली भाषा मुझे परेशान कर रही है।’ भैया के इन शब्दों को सुनकर हंसी तो आयी, पर भैया का बोलना एक तरह से व्यवहारिक ही था। क्योंकि सचमुच भाषाई परेशानी उन्हें उस नये शहर में हो रही थी। ..और अगले ही दिन भैया वहां से घर के लिए निकल लिए।
उस दौर में रहते हुए भैया से फोन पर मेरी बात सुबह, दोपहर, शाम होती रहती थी। फोन पर भैया बोले, ‘जो भी कहो, वह शहर बड़ा ही ख़ूबसूरत, शांत और शालीन शहर है। वहां के लोग भी बेहद शालीन हैं। मुझे वहां भाषाई दिक्कत तो थोड़ी हुई जरूर, पर कोई नहीं, तुमसे थोड़ी बहुत सीख लूंगा। फिर वहां आकर तुम्हारे साथ अच्छे से घूमेंगे।’
खुशी इस बात की थी कि भैया फिर से वहां आएंगे। और इस बात की भी कि उन्हें नई भाषा सीखने की ललक आज भी है। यह एक बड़ी बात है। सिर्फ हमारे लिए या भैया के लिए नहीं, बल्कि किसी के लिए भी। सीखते रहना चाहिए। चाहे वह नई भाषा हो या नई संस्कृति। भैया उस दौरान फिर वहां आ तो नहीं पाए, पर अब उन्हें उस भाषा की आंशिक ही सही, समझ तो हो ही गयी।
(लेखक मुंबई में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं)