विचार

हमारा नहीं तो हमारे बच्चों के रूप में ही सही, काश… लौट आता हमारा बचपन…!

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अनिल कुमार

आज मैंने चने का होरहालगाया। गांव में तोचने के खेत केकिनारे मेड़ पर हीघासफूस या पुआल(धान के पौधे केसूखे डंठल) में आग लगाकर चने के झाड़को पका लेते थे।पर यहां मंडी मेंचने के फल हीमिले। उन्हें मैंने गैस चूल्हे परकड़ाही में पकाया औरनमकमिर्च के साथ खाया।बड़ा मजा आया, लेकिनगांव की याद भीबहुत आयी।

 

होली की छुट्टियों मेंजब गांव जाते, तबदादाजी कहते। का करइत लोग, खाना खा लेल, जा तनी गोरैया थान(गांव में अलगअलगजगह के खेतों कोअलगअलग नाम सेपुकारा जाता है, जैसेहेठिला गेड़ा, अरहा पर, चिरवामें, दक्खिन भर……) उहां बुंट(चना) रोपल हे। तीनचार घंटा अगोर.. (रखवाली कर) हमसभी भाइयों के मन मेंलड्डू फूटते। धीरे से आपसमें बात करते औरसलाई (माचिस) और नमकमिर्चपाॅकेट में रख लेते।साथ ही दो अंटिया( धान के पौधे केसूखे डंठल के बंडल) भी एक छोटी लाठीमें टांग लेते। अंटियादेख दादाजी पूछते, काहे लाहो….



हम भाइयों में से कोईतपाक से बोलता, अरिया(आरी, मेड़) पर बिछा केबइठे ला बाबा। हमपोते किसके थे। दादाजी हमारीचालाकी समझ जाते औरकहते देख होरहा करेला होतवा दक्खिन औरपछियारी कोना से उखाड़िह।वोहिजा होरहा लाइक दाना बढ़ियानिकलल हई। साथ हीचेताते भी। आऊर हां, चना अपने ही खेतसे उखाड़िह, दोसर के खेतसे ना। (कई बारहमलोग शरारत करते और दूसरेके खेत से चनेका झाड़ उखाड़ करअपने खेत की मेड़पर होरहा लगाते।) होरहा खेत में अरिएपर करिह लोग। हांबाबा, हां बाबा। औरहम दौड़ पड़ते गोरैयाथान, चन के खेतकी ओर…
काश, हमारा बचपन लौट आता।हमारा नहीं तो हमारेबच्चों के रूप मेंही सही!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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